Friday 21 October 2011

| बिचड गए हम कुछ इस तरह |


                 | बिचड  गए  हम  कुछ  इस  तरह |


होटों  पे  मुस्कान  लेकर ,
चल  रहे  थे  पकड़  के  दामन | 
कही  दूर  , किसी  मंज़िल, 
प्यार  के  डोर  में  बंधे  हम |


एक  दुसरे  से  जुड़े  ,
जैसे  फूल  और  मेहेक  हम  |
मुर्झानेका  अब  तक  न  डर ,
साथ  थे  हर  समां  हर  पल |


तन्हाई  ज़िन्दगी  का  कोई  एहसास  न  था ,
बिचदने   का  कोई  आस  न  था |
जानते  थे  सूरज  अब  हे  उगा ,
ढलने  में  अभी  भी  वक़्त  बोहोत  था  |


अंजाम  जानकर  भी  अनजान  रहे  हम ,
ये  पलों  को  आँखों  में  समेट  लिए  हम  |
मंजिल  अब  दूर  था ,
पर  बदनसीब  ये  फूल  था |


आकर  किसी  ने  निचोड़  दिया ,
ढलने  से  पहले  ही  मुरझा  गया |
न  रहा  वोह  मेहेक , न  वोह  ख़ूबसूरती  , ऐसे  ही ...
दिल  में  आसू  लिए  बिचड़  गए  हम |


किसी  और  को  खुश  करने  के  लिए ,
अपनी  खुशबू  और  महक  दे  गए  हम |
सूरज  अब  ढल  गया ,
हमेशा  के  लिए  जैसे  अँधेरा  चा  गया |


घुट  घुट  के  जीते  हे  हम ,
एक  दुसरे  की  सलामती  चाहते  हे  हम |
खुदा  का  क्या  ये  खेल  हे ,
ज़िन्दगी  कितनी  बेरंग  हे |


कहा  से  कहा  ले  जाती  हे  ये  ज़िन्दगी ,
एक  पल  खुशिया  तोह   दुसरे  पल  गम  दे  जाती  हे  ये  ज़िन्दगी  |
बिचड  गए  हम  कुछ  इस  तरह  ,
दूसरों  के  खुशी  के  लिए  दे  दिया  ये  कुर्बान … |


                                                          लिकनेवाली  : - आद्रिका राइ   

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