Monday, 16 April 2012

एहसान तू मुझपे इतना सा कर

एहसान  तू  मुझपे  इतना  सा  कर 



ले  जा  तू  मुझे  अपने  संग 
एहसान  तू  मुझपे  इतना  सा  कर 
बेरंग  हो  गयी  हे  यह  ज़िन्दगी 
रंगों  का  तो  पता  ही  नहीं

रो  कर  भी  रो  न  सकूँ  मैं 
चाह   कर  भी  हंस  न  सकूँ  मैं  
कैसी  है  यह  बेरुखी 
फूलों  में  भी  काटों  से  भरी 

रिश्तों  में  है  फासलें 
जिए  तो  कैसे  जिए 
अकेले  कैसे  चले 
जब  मंजिल  ही  न  मिले 

कहाँ  रुक  जायेगा  यह  दस्तूर 
आगे  क्या  लिखा  है  ऐ   हुज़ूर ?
कैसे  कटेगा  यह  वक़्त 
अब  तो  दिल  बन  गया  है  सक्त

एहसान  तू  मुझपे  कर 
ले  जा  तू  मुझे  अपने  संग 
मर  मर  के  जी  रही  हूँ 
जी  कर  भी  क्या  है  सुकून  ?


                                             द्वारा लिखित:- आद्रिका राइ 

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