एहसान तू मुझपे इतना सा कर
ले जा तू मुझे अपने संग
एहसान तू मुझपे इतना सा कर
बेरंग हो गयी हे यह ज़िन्दगी
रंगों का तो पता ही नहीं
रो कर भी रो न सकूँ मैं
चाह कर भी हंस न सकूँ मैं
कैसी है यह बेरुखी
फूलों में भी काटों से भरी
रिश्तों में है फासलें
जिए तो कैसे जिए
अकेले कैसे चले
जब मंजिल ही न मिले
कहाँ रुक जायेगा यह दस्तूर
आगे क्या लिखा है ऐ हुज़ूर ?
कैसे कटेगा यह वक़्त
अब तो दिल बन गया है सक्त
एहसान तू मुझपे कर
ले जा तू मुझे अपने संग
मर मर के जी रही हूँ
जी कर भी क्या है सुकून ?
द्वारा लिखित:- आद्रिका राइ
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