Saturday, 12 November 2011

ये राह ...

ये  राह ...

में  चलती  रही  अनजान  रस्ते , 
न  खबर  कहा  किस  मंजिल ,
बस  चलती  रही ,
कदम  लड़खड़ाते ....

सूनी  सूनी  सी  रहे ,  
खोया  खोया  सा  ये  मन , 
दर्द  भरा  ये  आचल , 
अकेली  थी  हर  पल  ...

ख़ामोशी  से  भरा ,
ये  सुनसान  जगा ,
दिल  बेचैनी  से  भरा , 
ढूँढती , कहा  हे  मंजिल  मेरा  ?

पहुंची  एक  जगा , 
काँटों   से  भरा  ,
खड़ी  दो  रास्तो  के  बीच , 
सोचती  रही ,-" जाऊ  में  कहा ? " 

रोक  के  अपनी  आसू ,  
चल  पड़ी  एक  रस्ते  , 
न  जानते  कहा  पोहुचूंगी  
बस  चल  पड़ी  उपरवाले  के  भरोसे   |

 मिले  कई  लोग  राह  में ,
किसपे  भरोसा  करू  ?
अपनी  राह  खुद  बनाते  चल  पड़ी ,
क्या  पता  कोई  छोड़े  दामन   बीच  रस्ते ?


पहले   से  ही  टूट चुकी  हूँ ,
अब  न  सह  सकूंगी  ज्यादा ,  
नफरत  हे  इस  ज़िन्दगी  से ,
कितना  रुलाएगा  सताते  सताते ?





                                                                  लिखनेवाली :- आद्रिका राइ .

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