ये राह ...
में चलती रही अनजान रस्ते ,
न खबर कहा किस मंजिल ,
बस चलती रही ,
कदम लड़खड़ाते ....
सूनी सूनी सी रहे ,
खोया खोया सा ये मन ,
दर्द भरा ये आचल ,
अकेली थी हर पल ...
ख़ामोशी से भरा ,
ये सुनसान जगा ,
दिल बेचैनी से भरा ,
ढूँढती , कहा हे मंजिल मेरा ?
पहुंची एक जगा ,
काँटों से भरा ,
खड़ी दो रास्तो के बीच ,
सोचती रही ,-" जाऊ में कहा ? "
रोक के अपनी आसू ,
चल पड़ी एक रस्ते ,
न जानते कहा पोहुचूंगी
बस चल पड़ी उपरवाले के भरोसे |
मिले कई लोग राह में ,
किसपे भरोसा करू ?
अपनी राह खुद बनाते चल पड़ी ,
क्या पता कोई छोड़े दामन बीच रस्ते ?
पहले से ही टूट चुकी हूँ ,
अब न सह सकूंगी ज्यादा ,
नफरत हे इस ज़िन्दगी से ,
कितना रुलाएगा सताते सताते ?
लिखनेवाली :- आद्रिका राइ .
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