Thursday, 3 November 2011

एक अजीब सा रिश्ता

एक अजीब सा रिश्ता
                        
                                                                                            
ये सफ़र कितनी हँसी,

ये फूल पत्ते और हरियाली से भरी !
ये पंची, ये मौसम, ये वादियाँ, 
आँखों में छाई हे नमी! 



एक अनोखा रिश्ता, इस निसर्ग से अपना !
जब भी मिले, मन को सुकून मिले कितना !
न सवाल, न जवाब! कैसा हे ये रिश्ता मन का,
महसूस करू उनको और दिल बन जाये हल्का!



कुछ रिश्ते बनते हे बिगड़ते हे, 
एक पल देते हे ख़ुशी, तो दुसरे पल आँखे भरी भरी !
रिश्ते जोड़ते जोड़ते थक गए हे हम,
क्या यही हे संसार का नियम?



जो रिश्तों की एहमियत जानते ही नहीं,
क्यों मिलवाता हे उनसे ये ज़िन्दगी?
बस धोका हे हर जगह,
क्या यही हे इंसान बनने की सजा?



रिश्तों की ये इमतिहा, हे सबसे बड़ी!
मुसीबत लाये इतनी की, किस्मत भी न काम आये उस घडी !
हम तो पार कर गए सारे,
अंजाम में, रिश्ते बनाना ही भूल गए !



अब तो सिर्फ मुस्कुराते हे,
अपनी  बात इस हरियाली से करते हे,
हे तो अजीब सा रिश्ता, न खफा, न बेवफा,
बस महसूस करे और साथ रहे हमेशा ....

                                                                 द्वारा लिखित :-  आद्रिका राइ 

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